एक महिला परेशान खोई-खोई अपने बरामदे में टहल रही थी. दोपहर का वक़्त था. उनकी पडोसन भी अपने बरामदे में आईं. इन परेशान महिला को देखा तो बोलीं, 'क्या बात है बहन, बड़ी परेशान लग रही हो. सब ठीक तो है न?'
महिला, 'हाँ सब ठीक है, बस कुछ उलझन सी हो रही है'.
पडोसन, कैसी उलझन?'
महिला, 'ऐसा लग रहा है जैसे मैंने कुछ करना था पर किया नहीं और अब याद भी नहीं आ रहा कि क्या करना था.'
पडोसन, 'अरे तो इस में परेशान क्या होना. एक-एक करके गिन लो कि क्या करना था और क्या नहीं किया. सुबह उठने से शुरू करो.
'हाँ यह ठीक है', महिला ने खुश हो कर कहा और मन ही मन गिनना शुरू किया. कुछ ही देर में ख़ुशी से चिल्लाईं, 'याद आ गया. आज मैंने अभी तक पार्क में कचरा नहीं फेंका. बस इसी बात से उलझन हो रही थी.'
पडोसन, 'चलो ठीक हुआ, अब जल्दी से कचरा फेंको पार्क में और इस उलझन से छुटकारा पाओ'.'
महिला ने जोर से आवाज लगाईं, 'अरे बहू जल्दी दे प्लास्टिक में डाल कर कचरा दे, पार्क में फेंकना है.'
'पर सासूजी कचरा तो सारा जमादार ले गया.' बहू अन्दर से चिल्लाई.
'थोडा बचाकर नहीं रख सकती थी मेरे लिए? रोज पार्क में कचरा फेंकती हूँ जानती नहीं क्या?' महिला गुस्से से चिल्लाईं.
बहू बाहर आकर बोली, 'मैंने सोचा आपने फेंक दिया होगा. रोज सुबह आप सबसे पहला काम आप यही तो करती हैं.'
'अरे आज भूल गई', महिला बोली, 'अब जल्दी से कुछ कचरा तैयार करके ले आ. जब तक कचरा पार्क में नहीं फेंकूँगी मेरी उलझन दूर नहीं होगी'.
'अब इतनी जल्दी कचरा कहाँ से पैदा करूँ?, बहू ने कहा.
'हे भगवान्, किस गंवार को हमारे पल्ले बाँध दिया. जरा सा कचरा तक नहीं पैदा कर सकती.' महिला ने परेशानी में अपने माथे पर हाथ मारा.
बहू कुछ नहीं बोली और झल्लाती हुई अन्दर चली गई. मन में सोचा, बाबूजी को क्यों नहीं फेंक देती पार्क में, बेचारों का हर समय कचरा करती रहती है.
इधर महिला और परेशान हो गई. अचानक ही उन्हें एक आईडिया सूझा. उन्होंने अपनी पडोसन से कहा, 'बहन आपके यहाँ थोडा कचरा होगा? मुझे दे दीजिये कल लोटा दूँगी. मेरा आज का काम हो जाएगा.'
'हाँ हाँ बहन ले लीजिये कचरा और लौटाने की कोई जरूरत नहीं. आप अक्सर चाय, चीनी, दूध मांगती रहती हैं. कभी लौटाया है क्या कि अब कचरा लौटाएँगी'. पडोसन मुस्कुराते हुए बोली.
महिला तिलमिलाईं पर हंसते हुए बोली, 'अब जल्दी से मंगवा दो न कचरा.'
पडोसन ने अपनी बहू को आवाज दी, 'अरे बहू थोडा कचरा एक प्लास्टिक में डाल कर ले आ. आंटी को पार्क में फेंकना है.'
बहू कचरा ले कर आई और आंटी को दे दिया. महिला ने कचरे से भरा प्लास्टिक पार्क में फेंक दिया. दूर बैठा एक कुत्ता दौड़ा हुआ आया आया. प्लास्टिक को फाड़ा और कचरे को इधर उधर फैला दिया.
महिला के चेहरे पर प्रसन्नता और शान्ति का भाव था, ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने कोई महान सामजिक और सांस्कृतिक कर्तव्य पूरा किया हो. वह हंसते हुए पड़ोसन से बोली, 'बहन आपका बहुत बहुत धन्यवाद. आपका यह उपकार जिंदगी भर नहीं भूलूंगी.'
पड़ोसन बोली, 'पड़ोसी होते किस लिए हैं?'
जय कचरा संस्कृति.
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