भ्रष्टाचार है - तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना, कानून की अवहेलना, योग्यता के मुकाबले निजी पसंद को तरजीह देना, रिश्वत लेना, कामचोरी, अपने कर्तव्य का पालन न करना, सरकार में आज कल यही हो रहा है. बेशर्मी भी शर्मसार हो गई है अब तो.

Thursday, February 26, 2009

कुछ सवाल और जवाब

१. घडी बनाने की कंपनी में तुम्हारा काम कैसा चल रहा है?
 - यह तो समय ही बतायेगा.

२. केले की कंपनी में तुम्हारा काम कैसा चल रहा है?
-  काम करते हुए अक्सर फिसल जाता हूँ.

३. नए हाइवे पर तुम्हारा काम कैसा चल रहा है?
- इतना व्यस्त हूँ कि यह पता ही नहीं चलता कि किधर मुड़ना है. 

४. ट्रेवल एजेंसी में तुम्हारा काम कैसा चल रहा है?
- मैं कहीं नहीं जा रहा.

५. घूमने वाली कुर्सियों की कंपनी में तुम्हारा काम कैसा चल रहा है?
- अक्सर मेरा सर घूम जाता है.

६. नींबू जूस की कंपनी में तुम्हारा काम कैसा चल रहा है?
- इस से ज्यादा कड़वी नौकरियां कर चुका हूँ. 
 
७. गुब्बारे बनाने की कंपनी में तुम्हारा काम कैसा चल रहा है?
- हम इन्फ्लेशन का मुकाबला नहीं कर पा रहे.

८. क्रिस्टल बाल बनाने की कंपनी में तुम्हारा काम कैसा चल रहा है?
- मैं अपना फार्चून बना रहा हूँ. 

९. इतिहास की पुस्तक छापने की कंपनी में तुम्हारा काम कैसा चल रहा है?
- इस का भविष्य सुखद नहीं है. 
 

Monday, February 23, 2009

दरोगा जी के घर चोरी

एक दिन एक अनहोनी हो गई,
दिन दहाड़े एक दरोगाजी के घर चोरी हो गई,
फ़िर भी लोग चोर को शिष्ट बता रहे थे,
उसी के गुण गा रहे थे,
क्योंकि वह जाते-जाते एक अटेची छोड़ गया था,
और एक पत्र भी दरोगाजी की वर्दी में खोंस गया था,
निवेदन किया था,
हुजूर क्या बताएं?
इस शहर के लोग इतने गरीब हो गए हैं,
कि उनसे अपना पेट अब नहीं पल रहा है,
इसलिए मजबूर होकर आप ही के यहाँ यह कार्यक्रम रखना पड़ रहा है,
आशा है गुस्ताखी माफ़ करेंगे,
मेरे ख़िलाफ़ कोई रपट नहीं लिखेंगे,
इस गरीब की सेवाएँ याद रखेंगे,
आज भी अपना कर्तव्य निभाये जा रहा हूँ,
इस अटेची में आपका कमीशन छोड़े जा रहा हूँ. 

(मनमोहन जी के संग्रह से)

Thursday, February 19, 2009

धर्म की तिजारत

कुछ और व्यंग मनमोहन जी के संग्रह से.

उनकी तुर्बत पे एक दिया भी नहीं,
जिनके खूँ से जला चिरागे वतन.
जगमगाते हैं मकबरे उनके,
बेचते रहे जो शहीदों का कफ़न. 

मवालियों को न देखा करो हिकारत से,
न जाने कौन सा गुंडा वजीर बन जाए.

ख़ुद बाग़ के माली ने गुलशन की यह हालत की,
फूलों का लहू बेचा, खुशबू की तिजारत की.

तुम्हें हिंदू की चाहत है न मुस्लिम से अदावत है,
तुम्हारा धर्म सदियों से तिजारत था, तिजारत है.

शायद कोई लीडर नहीं गुजरा है इधर से,
बस्ती में बहुत दिन से अमन देख रहा हूँ. 

Monday, February 9, 2009

कुछ और व्यंग रचनाएं - आज की राजनीति

मनमोहन जी के व्यंग संग्रह से कुछ और रचनाएं प्रस्तुत हैं. संग्रह में रचनाएं कुछ अपनी हैं कुछ दूसरों की. लेखकों का पता नहीं है इस लिए सबको बेनाम धन्यवाद. 

समय समय की बात है, समय समय का योग,
सिक्कों  में  तुलने  लगे  दो  कौड़ी    के     लोग.

बात गोली से कभी पार चली जाती है,
ज्यादा घिसने से सभी धार चली जाती है,
मिले कुर्सी तो औकात न भूलें, लिख लें,
एक ही झटके में सरकार चली जाती है.

जमीन बेच देंगे, गगन बेच देंगे,
यह मुर्दों के सर का कफ़न बेच देंगे,
कलम के सिपाही अगर चुप रहे तो,
वतन के यह नेता वतन बेच देंगे.

ख़ुद लूट लिया काफिला अपना ही जिन्होनें,
ऐसे ही हमें काफिला सालार मिले हैं.

इस दौर के हालत से मजबूर हो गया,
इंसान आज ख़ुद से बहुत दूर हो गया,
राहजन बनाए जाते हैं अब राहबर यहाँ,
क्या खूब अपने मुल्क का दस्तूर हो गया. 

Monday, February 2, 2009

मनमोहन जी का व्यंग संग्रह

वह पेशे से वकील हैं, पर रूचि रखते हैं हास्य-व्यंग में. 
ख़ुद भी व्यंग रचना करते हैं, और यहाँ-वहां से सुनी-पढीं व्यंग रचनाएं संग्रहित भी करते हैं. उनके संग्रह से स्वरचित एक रचना आप सबको समर्पित है.

है कलिकाल तुम्हारी माया,
सचमुच तीन लोक से न्यारी.
मानवता का पाठ पढाते,
कपटी, लोभी, भ्रष्टाचारी.

सच्चे संत महापुरुषों की,
शर्म से गर्दन झुकी हुई है.
पाखंडी गुरुओं को मिल गई,
आज धर्म की ठेकेदारी.

मानवता मिल गई एक दिन,
मैंने देखा बुरा हाल था.
बुरी तरह से बिखरी-बिखरी,
टूटी-टूटी,हारी-हारी. 

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