क्या हो गया अगर हमने गांधी जी की व्यक्तिगत बस्तुओं को भारत लाने में मिली सफलता को अपनी पार्टी और सरकार की सफलता कह दिया तो? यह तो हमारी आदत है. हमने हमेशा हर सफलता को अपने खाते में लिखा है, और हर विफलता को दूसरों के खाते में. देश को आज़ादी मिली तो हमने दिलाई. जो मर गए, फांसी पर लटक गए, वेबकूफ थे. यह हमारा पहला महान काम था. इस में तो हमने गाँधी जी को भी किनारे कर दिया. सारा श्रेय हमने अपने परिवार और पार्टी को दे दिया. उसके बाद से हम लगातार ऐसे महान काम करते चले आ रहे हैं.
आज देश के कितने शिक्षा मंदिर, अस्पताल, सड़कें, इमारतें, सरकारी योजनायें, सब हमारे परिवार के नाम पर चलती हैं. अपनी हर पीढी को भारत रत्न दिया है हमने. कुछ वबकूफ़ लोगों ने पिछले प्रधान मंत्री को भारत रत्न देने का चक्कर चलाया. हमने उन्हें उनकी जगह दिखा दी. हमारी पार्टी को हराकर प्रधानमंत्री बनने वाला व्यक्ति भारत रत्न कैसे हो सकता है? इतनी सी सीधी बात भी इन वेबकूफों की समझ में नहीं आई. हमारी पार्टी की मालिकिन की तस्वीर हर सरकारी विज्ञापन में छपती है. इस पर भी कुछ वेबकूफ ऐतराज करते हैं. करते रहें और जलते रहें. हमें क्या फर्क पड़ता है.
'जय हो' को आस्कर मिला तो उस का श्रेय हमें जाता है. इससे पहले ओलम्पिक में पहला स्वर्ण पदक भी हमारी वजह से मिला. और भी बहुत से महान कार्य हमने किये हैं पर इस समय याद नहीं आ रहे. यह तो वेबकूफी हैं उन लोगों की जो इसे अपनी व्यकिगत सफलता मानते हैं.
आओ और हमारी जय-जयकार करो. तुमने भी अगर कुछ अच्छा किया है तो उस का श्रेय हमें दो. यही तुम्हारा कर्तव्य है. अपना कर्तव्य पूरा करो. नहीं तो हमारी मालकिन को अच्छा नहीं लगेगा.