कुछ और व्यंग मनमोहन जी के संग्रह से.
उनकी तुर्बत पे एक दिया भी नहीं,
जिनके खूँ से जला चिरागे वतन.
जगमगाते हैं मकबरे उनके,
बेचते रहे जो शहीदों का कफ़न.
मवालियों को न देखा करो हिकारत से,
न जाने कौन सा गुंडा वजीर बन जाए.
ख़ुद बाग़ के माली ने गुलशन की यह हालत की,
फूलों का लहू बेचा, खुशबू की तिजारत की.
तुम्हें हिंदू की चाहत है न मुस्लिम से अदावत है,
तुम्हारा धर्म सदियों से तिजारत था, तिजारत है.
शायद कोई लीडर नहीं गुजरा है इधर से,
बस्ती में बहुत दिन से अमन देख रहा हूँ.
1 comment:
वाह्! जी वाह्! क्या सच्चाई बयां की है.बहुत बढिया........
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