पप्पू - सोच रहा हूँ नाम बदल लूँ.
गप्पू - क्यों इस नाम में क्या बुराई है?
पप्पू - पहले नहीं थी, अब हो गई है. इस साले चुनाव आयोग को भी यही नाम मिला था. मैंने वोट डाला था, फ़िर भी लोग मुझे रोक कर पूछते हैं कि आपने वोट क्यों नहीं डाला?
पति - वधाई हो, आज दिल्ली में मतदान है.
पत्नी - इस में वधाई की क्या बात है?
पति - अरे भई, पाँच साल में यह मौका आता है. आज के दिन ऐसा महसूस होता है कि हम भी कुछ हैं.
पत्नी - यह तुम्हें ही महसूस होता है या कोई दूसरा भी यह महसूस करता है कि तुम भी कुछ हो?
पति - पहले तो ऐसा लगता था कि दूसरे भी यह महसूस करते हैं कि हम कुछ हैं, भले वह एक दिन के लिए ही ऐसा महसूस करते हों. पर इस बार तो ऐसा कुछ हुआ ही नहीं. आँखें तरस गईं, कान तरस गए - कोई आएगा, घंटी बजायेगा, हम तने हुए दरवाजा खोलेंगे, वह हाथ जोड़ कर और कुछ झुक कर कहेगा, 'अपना अमूल्य वोट हमें ही दीजियेगा'. पर इस बार तो यह सपना सपना ही रह गया. कोई नहीं आया इस बार.
पत्नी - हाँ यह बात तो है. मतदाता का इतना अपमान तो कभी नहीं हुआ. मत दो किसी को वोट इस बार.
पति - वोट नहीं दूँगा तो चुनाव आयोग मुझे पप्पू कहेगा.
पत्नी - हाँ यह बात भी है. मतदाता तो बेचारा हर तरफ़ से फंस गया. वोट दें तो दें किसे, कोई भी तो वोट के लायक नहीं है. वोट न दो तो लोग पप्पू कहेंगे.
पति - इस से तो अंग्रेजों की गुलामी अच्छी थी. गुलाम थे गुलाम कहलाते थ. अब कहने को तो आजद हो गए हैं, पर वोट तक डालने की तो आजादी नहीं है. यह सीट आरक्षित है, यानी अब कुछ लोगों में से ही अपना प्रतिनिधि चुन सकते हैं. रमाकांत पंडित हैं, पूरी तरह योग्य हैं, पर उन्हें नहीं चुन सकते क्योंकि वह आरक्षित वर्ग के नहीं हैं.
पत्नी - हाँ यह बात तो है. आजादी भी कुछ लोगों के लिए आरक्षित हो गई है. बाकी तो सब अब भी गुलाम हैं.
3 comments:
bahut badhiyaa!!
ha ha ha bahut achha likha hai.
बहुत सुंदर व्यंग.
धन्यवाद
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